कर्त्तव्य को बनाएं सर्वोपरि लक्ष्य
अध्यापक ने विद्यार्थियों से पूछा- ‘रामायण और महाभारत में क्या अंतर है?’ विद्यार्थियों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिए।
अध्यापक को संतोष नहीं हुआ। एक विद्यार्थी ने अनुरोध किया- ‘आप ही बताइए’ अध्यापक बोला-रामायण और महाभारत में सबसे बड़ा अंतर है ‘हक-हकूक’ का। रामायण में राम ने अपना अधिकार छोड़ा, राज्य छोड़ा और चौदह वर्षों तक वन में जाकर रहे। वे चाहते तो अधिकार के लिए लड़ाई कर सकते थे। दशरथ उन्हें वन में नहीं भेजना चाहते थे। अयोध्या की जनता उनके वन-गमन से व्यथित थी। पर राम ने अपने कर्त्तव्य को अधिकार से ऊपर रखा। पिता के कहे का पालन उनके जीवन का महान आदर्श था।
महाभारत का संपूर्ण कथानक अधिकारों की लड़ाई का कथानक है। कौरव और पांडव आपस में चचेरे भाई थे। भाई-भाई के रिश्तों में जो गंध होती है, मिठास होती है, अपनापा होता है, उसका दर्शन ही वहां कहां होता है! पांडव सब कुछ जुए में हार गए। सब वादे पूरे कर वे लौटे तो दुर्योधन ने पांच गांव तो क्या, सूई की नोक के बराबर भूमि भी देने से मना कर दिया। ये दो उदाहरण हैं-हमारे सामने। प्रथम उदाहरण अपनेपन से भरे आत्मीय संबंधों का है। यह संबंधों की मधुरता व्यक्ति को कभी आत्मकेंद्रित नहीं होने देती। वह अपने बारे में नहीं सोचता; परिवार, समाज और देश के बारे में सोचता है। उसका अपना कोई स्वार्थ होता ही नहीं। पद-प्रतिष्ठा और सुख-सुविधा के संस्कारों से वह ऊपर उठ जाता है। ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है, जो कर्त्तव्य को अपने जीवन का सवरेपरि लक्ष्य मानता है। वह संस्कृति सफल होती है जो कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्तियों को जन्म देती है।
वह शताब्दी सफल होती है, जो कर्त्तव्य की धारा को सतत प्रवाही बनाकर जन-जन तक पहुंचाती है। वह परंपरा सफल होती है, जो कर्त्तव्य का बोध देती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि पूजा-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और सुख-सुविधा की अर्थहीन चिंता छोड़कर व्यक्ति अपने जीवन को कर्त्तव्य के लिए समर्पित कर दे।