ज्योतिष पीठ के नए शंकराचार्य पर विवाद शुरू
लखनऊ । नरसिंहपुर ईएमएस, ज्योतिष बद्रिकाश्रम पीठ के नए शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद का अभी पट्टाभिषेक भी नहीं हुआ है। उसके पहले ही विवाद शुरू हो गए हैं। गोवर्धन पीठ के स्वामी निश्चलानंद और अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत रवींद्र पुरी ने शंकराचार्य की नियुक्ति को गलत बताया है। यह धारणा बनाई जा रही है कि अखाड़ों के द्वारा शंकराचार्य की नियुक्ति की जाती है। ब्रह्मलीन स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज द्वारा जो वसीयत लिखी है। उसको कानूनी चुनौती देकर,स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद को शंकराचार्य बनने से रोकने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास शुरू हो गए हैं।
नए शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा उनकी नियुक्ति शास्त्र परंपरा और विधि सम्मत तरीके से हुई है। शंकराचार्य जी को मठ की प्रक्रिया और मठों के बारे में जानकारी होती है। उन्होंने कहा अखाड़ों की प्रक्रिया अलग होती है। उन्होंने कहा जरूरी नहीं है कि शंकराचार्य मठ में अखाड़ों की परंपरा को लागू किया जाए।
स्वतंत्रता के पहले बहुत समय तक शंकराचार्य के पद खाली पड़े हुए थे। 1941 में ब्रह्मलीन स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती को शंकराचार्य पद पर जूना अखाड़ा एवं अन्य अखाड़ों की अध्यक्षता में हुई बैठक में शंकराचार्य पद के लिए चुना गया था। क्योंकि उसके पहले कोई शंकराचार्य नहीं थे। उस समय अखाड़ा परिषद ने सर्वसम्मति से शंकराचार्य का चयन किया था।
ब्रह्मलीन स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती ने जिस प्रक्रिया से स्वामी स्वरूपानंद जी को शंकराचार्य पद सौंपा था। उसी परंपरा का पालन ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज ने अपनी वसीयत लिखकर दांडी सन्यासी अविमुक्तेश्वरानंद को शंकराचार्य पद पर आशीन किया है। जो शंकराचार्य पीठ की वैध परंपरा है।
स्वामी निश्चलानंद को विश्व हिंदू परिषद और अखाड़ा परिषद अपना शंकराचार्य बताता रहा है। इसको लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस भी चला। स्वामी निश्चलानंद द्वारा जो दस्तावेज और वसीयत कोर्ट में पेश की गई थी। वह कोर्ट में फर्जी पाई गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्वामी स्वरूपानंद जी को शंकराचार्य घोषित किया था।
उनके ब्रह्मलीन होने के बाद एक बार फिर शंकराचार्य पद को लेकर विवाद शुरू हो गया है। विश्व हिंदू परिषद और अखाड़ा परिषद पिछले कई दशकों से स्वामी स्वरूपानंद महाराज और अब अविमुक्तेश्वरानंद का विरोध करने मैदान में है। पिछले दशकों में जिस तरह से मठ और मंदिरों में राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़ रहा है उसे धार्मिक परंपराओं को लेकर विवाद की स्थिति बन रही है धार्मिक संगठन अब राजनीति के सहारे सत्ता के समीप पहुंचने का प्रयास करते हैं राजनेता भी अब साधु संतों के माध्यम से लाभ उठाने में पीछे नहीं है।